नीलम कटारा बनाम फेमिनिस्ट

कई वर्ष पहले मेरे पति नीलम कटारा से एक यात्रा के दौरान मिले थे ।मेरे पति ने उनसे मिलकर पूछा था ,” आप नीलम कटारा जी हैं ना , आपका संघर्ष देख कर हौसला मिलता है। ” बदले में जो नीलम जी ने जो कहा वो था ,” जी हाँ मैं ही नीलम हूँ , नितीश और नितिन की माँ और मेरे बेटे के कातिलों के लिए यह सज़ा ही बहुत बड़ी है कि उनको कोर्ट में घंटो इंतज़ार करना पड़ता है । ” तब उनको शक था कि उन्हें न्याय मिलेगा या नहीं । यह शब्द उस माँ के थे जिसके बेटे के कातिलों को आज कोर्ट ने सजा सुना दी है। उसकी तपस्या आज सफल है , मीडिया के गलियारों में थोड़ी हलचल है ,मगर वैसी नहीं जैसी अमूमन किसी महिला के लिए होती है , क्यों ? फेमिनिस्ट भी चुप हैं , नीलम कटारा फेमिनिस्ट आइकॉन नहीं हैं क्यों ? कैसे एक घटिया चिट्ठी , ट्वीट या बरसों पुरानी घटना कह भर देने से कोई महिला ब्रेवहार्ट बन जाती है और पुरुष महिला को सम्मान देने वाला बन जाता है मगर इतनी बड़ी लडाई ज्यादा बड़ी खबर नहीं बन पायी ?

यहाँ हत्या एक बेटे की हुई थी , उस बेटे का कसूर था एक रसूखवाले की बेटी से प्रेम करना।  अगर बेटी मारी जाती तो वो ऑनर किलिंग होती , मगर मारा गया बेटा । और बेटा घर का ऑनर ( इज्ज़त ) नहीं बंधुआ मजदूर होता है।अगर एक बंधुआ मजदूर मर भी गया तो अफ़सोस किस बात का , क्यों उसकी माँ इतनी हाय तौबा मचाये हुए है ? क्यों उसने १४ वर्ष वनवास की भांति एक लम्बी लडाई लड़ी और जीती ?

ध्यान दीजिये कि फेमिनिस्ट आइकॉन बनने के लिए लडाई लड़के की नहीं लड़की की होनी चाहिए और औरत झुर्रियां पड़ी हुई माँ नहीं चिकने चेहरे वाली पत्नी , गर्लफ्रैंड या फिर कोई भी जवान औरत होनी चाहिए। और इस जवान औरत की लडाई एकदम झूठी बेसिर पैर की होनी चाहिए जैसे - मुझे दहेज़ के लिए टार्चर किया गया , मुझ पर घरेलू हिंसा हुई या मेरे साथ ज़बरदस्ती की गयी। आप आँख मूंदकर उस जवान चिकने गलोंवाली पर विश्वास कर लेते हैं। आपको झुर्रियां पड़ी हुई लड़के की माँ याद तक नहीं आती। यह बात सिर्फ उनकी नहीं है जिन पर आज तक कोई आरोप नहीं लगा है , यहाँ बात उनकी भी है जो आरोपों से घिरे हुए हैं मगर समझते हैं कि उनको फंसाया गया है क्योंकि कहीं कोई पुरुष किसी स्त्री के साथ ज़रूर ऐसा कर रहा होगा।

हाँ तो बात हो रही थी नीलम कटारा की उसके जैसी झुर्रियां पड़ी हुई औरत अपने दोनों बेटों के लिए संघर्ष कर रही थी।  हम अख़बारों में पढ़ रहे थे कि नितीश कटारा को मार दिया गया , उसकी गर्लफ्रेंड भारती को शक था , उसने नितीश को बचाने के भरसक कोशिश की पर वो हार गयी।  भारती पर इतना दबाव डाला गया कि वह कभी नितीश के पक्ष में बयान नहीं दे पायी।  दबाब तो नीलम कटारा पर भी रहा होगा पर वह भिड़ी हुई थीं, एक दबंग बाहुबली माफिया/ नेता से।  उसके दूसरे बेटे नितिन को भी ज़हर देकर मारने ने साज़िश हुई , नीलम फिर भी नहीं डरी।वो लडती रही एक भ्रष्ट व्यवस्था से और रसूखवाले लोगों से। मैं क्यों यह सब लिख रही हूँ क्योंकि मुझे बताया गया था कि लड़कियां इसलिए समझौता कर लेती हैं कि वो डर जाती हैं। कुछ दिन पहले एक पत्रकार महोदया मेरा साक्षात्कार लेने आई , यह और बात है कि वह साक्षत्कार आज तक नहीं प्रकाशित नहीं हुआ। असल में वह यह जानना चाह रही थी कि इस औरत को समस्या क्या है ,यह क्यों आदमी का पक्ष लेकर इतने जोर शोर से मुहीम चलाये हुए है। 

मेरे कुछ सवालों का जवाब वो बिलकुल नही दे पाई , उसका कहना था कि बेचारी लड़कियां दबाव में आकर न केवल समझौता करती है बल्कि शिकायत वापस भी ले लेती हैं।  मैंने पूछा दबाव किसका होता है , लड़के पर तो क्रिमिनल केस होता है। वो तो जमानत या जेल की तैय्यारी कर रहा होता है और रेप के मामलों में तो जमानत का सवाल ही नहीं है। लड़का पहले ही जेल जाता है और जब तक जमानत मिलती है तब तक उसकी ज़िन्दगी का एक हिस्सा बर्बाद हो चुका होता है। लड़की पैसे लेकर समझौता कर लेती है , दहेज़ के मामलों में वापिस पति के साथ रहने को तैयार होती है या फिर बहुत सा पैसा लेकर तलाक लेती है। ज़्यादातर मामलों में तलाक भी नहीं लेती गुज़ारा - भत्ता लेकर काम चलाती रहती है।  कोर्ट में आना बंद कर देती है और इसके बदले उनको कोई सजा नहीं मिलती।  क्रिमिनल मामला स्टेट के विरुद्ध होता है तो लड़का और उसका परिवार जहाँ बरसों फंसे रहते हैं , लड़की लिखित आरोप लगाकर गायब हो जाती है।  पति के पास वापिस आने की बात करती है क्योंकि उसके अपने पिता और भाई उसका साथ नहीं देते और उनकी अपनी बेटी/बहन उनके लिए बोझ बन जाती है।  उन्होंने मामला न्याय के लिए नहीं दर्ज कराया होता उन्होंने मामले दर्ज कराया होता है लड़के को डरा धमका के पैसे दिलाने के लिए।  पत्रकार महोदया शांत थी इस बात का वो क्या जवाब देती तो चुप चाप चली गयीं। 

मगर मैं शांत नहीं रह पायी , यदि दहेज़ , घरेलू हिंसा , बलात्कार के आरोप सच्चे हैं तो लड़िये।  मुंह छिपाकर कोर्ट से बचना क्यों ? मतलब साफ़ है सारे आरोप झूठ का पुलिंदा होते हैं और लडको को डराकर पैसा निकलने की तरकीब है। अगर लड़का डर गया तो लड़की कामयाब और अगर लड़के ने लडाई लड़ने की ठान ली तो लड़की और परिवार गायब हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि इस गोरखधंधे का पता पुलिस , न्यायालयों , फेमिनिसटों को नहीं हैं बल्कि वो इस धंधे में शामिल हैं।  आप महिला थाने जाईये आपसे कहाँ जायेगा पैसा देकर समझौता कर लीजिये , आप न्यायालय जाईये जज की कुर्सी पर बैठा न्यायाधीश पूछेगा ,” कितना दे सकते हो , दे दो पैसे ख़तम करो।” आप कहोगे कि मैंने कोई हिंसा नही की मैंने दहेज़ नहीं माँगा मेरे पास सबूत हैं। उस जज को आपके सबूतों से नहीं आपकी पाकिट से मतलब है , लड़की को उसके साथ कुछ रात बिताने की कीमत दे दो ख़तम करो।  अजीब लग रहा है पढ़कर , पर सच्चाई यही है कि यह मामले दहेज़ , घरेलू हिंसा , रेप के नहीं दलाली के हैं । और यहाँ एक दलाल नहीं होता कम से कम तीन दलाल होते हैं – लड़की का बाप , लड़की का भाई और जज . वकील और पुलिस भी लगभग इसी श्रेणी में आते हैं।  न जाने ऐसे कितने ही मामले हैं जहाँ लड़का मर चुका है , उसकी पत्नी ने कोर्ट में आना बंद कर दिया है क्योंकि कुछ माल मिलना नहीं है मगर लड़के का परिवार तारीख पर आता जा रहा है।  तकनीकी रूप से लडकी को पेश होने को कहा जा सकता है मगर ऐसा होता कभी नहीं।  क्रिमीनल मामले ख़तम नहीं होते अगर खतम हो जाएँ तो कमाई कहाँ से होगी ? यह जितने भी फेमिनिस्ट टेलीविज़न , अख़बारों में दहेज़ , घरेलू हिंसा का रोना रोते हैं यही मामले पैसे से "सेटल"करवाने में शामिल होते हैं। यदि आप इस फेर में हैं कि यह महिला हित की बात करते हैं तो समझ लीजिये इनका व्यवसाय है महिला हित की बात करना। समाज टूटा रहे , अपराध होते रहे तभी इनका व्यवसाय चलेगा वरना यह कहाँ का तर्क है कि महिला के विरुद्ध अपराध बंद होने चाहिए। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि महिला की हत्या बंद हो मगर पुरुष की होती रहे हमे कोई मतलब नहीं है। 
                              दहेज़ है क्या 
 कुछ भी नहीं जी हाँ कुछ भी नहीं।  जब एक शादी होती है तो उसमे पूरा व्यवसाय किया जाता है।  लड़का कितना कमाता है , उसके पास अपना घर है कि नहीं , उसके ऊपर जिम्मेदारियां क्या क्या हैं , विदेश घुमायेगा या नहीं , गहने कितने देगा शादी में और बाद में। उसके बदले में लड़की वाला अपनी बेटी को कुछ गिफ्ट दे देता है जिसमे इलेक्ट्रॉनिक आइटम , गहने कपडे थोडा बहुत पैसा शामिल होता है।  याद रखिये जो लड़की की तरफ से आ रहा है झगडे के समय वही दहेज़ माना जायेगा बाकी लड़की जो लड़के का सामान ले जाएगी या क्लेम करेगी वो सब स्त्री-धन है यानी चित भी मेरी पट भी मेरी।  यदि शगुन के पैसे देना दहेज़ जैसा खतरनाक गुनाह है , तो त्योहारों पर लिया/दिया जाने वाला शगुन क्या है ? मुझे तो २१ रुपये भी गुनाह लगते हैं जो मेरी मौसी मुझे चलते वक़्त देती है क्योंकि तथाकथित दहेज़ और उस शगुन के २१ रुपयों में बिलकुल अन्तर नहीं है।  मैं हंसकर और गंभीर होकर कई बार कह चुकी हूँ पहले इस ११ , २१ , ५१ पर रोक लगवा कर कोई दिखाए शादी तो बड़ा आयोंजन होता है . और दहेज़ सचमुच कुछ नहीं होता क्योंकि जब शादी होती है तो कोई लड़की सिर्फ इसलिए शादी नहीं तोड़ देती कि ,” मेरे पिता को १००० रुपये देने पड़ रहे हैं मैं शादी नहीं करुँगी या मेरी ससुराल से मुझे गहने नहीं चहिये .” देखी आपने आज तक कोई ऐसी लड़की ? या कोई लड़की अपने पिता या भाई से यह ही कह दे , “ मुझे यह सब नहीं चाहिए आप तो मेरे नाम संपत्ति कर दो। ” नहीं कहेगी क्योंकि फेमिनिस्म पति का घर छोड़ने और इलज़ाम लगाने को कहता है , पिता का नहीं।  जिस दिन लड़कियों ने पिता के घर पर हक माँगा बाज़ी उसी दिन पलट जाएगी। अगली बार जब आप को लगे धारा ४९८अ का दुरूपयोग हो रहा है तो याद रखना कि धारा ४९८अ इसी उपयोग के लिए बनी थी।  यहाँ किसी को लड़ना नहीं हैं बस सौदा करना है . सौदा आदमी के जज्बातों का , जिस्म का और उसके जीवन का। 
कितनी फेमिनिस्ट हैं जो खर्चीली शादियों के विरोध में बात करती है ? बाज़ार में हर नया फैशन शादी का हिस्सा होता है। वही अखबार जो दहेज़ का रोना रोते हैं, गर्व से ब्राइडल कलेक्शन छाप रहे हैं , गहनों की बड़ी कंपनियां धड़ल्ले से गहनों के विज्ञापन में तथाकथित दहेज़ का प्रचार करती हैं।  और फिर तथाकथित पुरुषसत्तात्मक समाज में पुरुषों इसको जुर्म बनाकर बताकर गिरफ्तार कर लिया जाता है। जबकि गहने , कपडे , साज सज्जा का एक पूरा बाज़ार सिर्फ महिलाओं के बल पर चलता है। इसलिए सवाल अभी भी वही है , यह दहेज़ है क्या ?  
                                 घरेलू हिंसा 
यही हाल घरेलू हिंसा का है , वह कुछ भी हो सकती है।  बचपन में जो कुछ माँ – बाप ने सिखाया था वह सब घरेलू हिंसा है। वहां से मत जाना वहां अधेरा होता है खतरा है , यह घरेलू हिंसा कैसे बनता है देखिये ,” इन्होने वहां बत्ती लगवाने की दरख्वास्त ना देकर अपनी पत्नी को वहां जाने से रोका यह घरेलू हिंसा है आप स्त्री को कहीं आने जाने से नहीं रोक सकते। ” यह सब फेमिनिस्म की अंधी दौड़ का नतीजा है कि ,” मैं नंगी घूमूंगी मगर आप मेरी तरफ देख नहीं सकते क्योंकि वो बलात्कार है ( stare rape ) ” आपकी पत्नी बच्चे पर ध्यान नहीं देती आपने उसे टोका यह घरेलू हिंसा है ,” क्या बच्चे की देखभाल सिर्फ एक माँ का काम है ? उसको हक नहीं कि कुछ देर सहेलियों से बात कर ले या अपनी माँ से चुगली कर ले आप तो ऑफिस में ऑफिस में रोज़ मज़े करते हो , वो क्या घर पे सिर्फ खाना बनाने के लिए है .” यह सब घरेलू हिंसा का दायरे में आता है।  आपको इसका खामियाजा अपनी जेब से भरना पड़ता है क्योंकि सारा दुःख , सारी हिंसा सब पैसे से ख़तम हो जाता है।  पैसा फेंकते रहो बिना सवाल किये तो कभी दहेज़ , घरेलू हिंसा की बात नहीं उठेगी और कभी आपने गलती से कोई सवाल कर दिया तो आप माने ना माने आप अपराधी हैं। 

नीलम कटारा भी आइकॉन होती अगर वो पैसे से समझौता करती , जगह जगह महिला होने का रोना रोती और लडाई उसके बेटे की नहीं बेटी की होती। वो दबाव के आगे झुककर रोई नहीं बस लडती रही साल दर साल। झुर्रियों वाली ग्लैमर रहित नीलम कटारा जवाब है उन चिकनी समर्थ , हृष्ट पुष्ट महिलाओं को जो महिला होने का रोना रोकर , आरोप लगाकर साफ़ बच जाती हैं और हमारी सड़ी व्यवस्था ऐसी महिलाओं का पक्ष लेती है। शर्म से डूब मरना चाहिए उन सब महिलाओं का जो आरोप लगाकर गायब हैं और उनके घरवालों को जो अपनी ही बेटी का सौदा कर रहे हैं मगर ऐसा होगा नहीं क्योंकि यह महिला सशक्तिकरण का प्रतीक हैं। महिला सशक्तिकरण और फेमिनिज्म दोनों महिला को पीडिता की तरह जीने की राह दिखाते हैं और जब आप उस राह पर चलने से मना कर देते हैं तो आप नीलम कटारा बन जाते हैं। ऐसी ना जाने कितनी नीलम कटारा पुरुष और महिला रूप में हमारे आस - पास मौजूद हैं , जो एक लम्बी लडाई के लिए तैयार हैं मगर विरोधी चुप बैठ गए हैं क्योंकि आरोप झूठे बेबुनियाद हैं या विरोधी पैसे ले चुके हैं और अब उनको लड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है। 

Comments

  1. Bhut hi sahi or aaj ki sachayi likhi h

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  2. For same things like my fb page men's right's helpline rajasthan

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