जाने कितने सचिन
मैं जानती हूँ और मौतों की तरह लोग यह मौत भी भूल जायेंगे। भूल जायेंगे कि तुम कितने मजबूर थे की तुमको आत्महत्या करनी पड़ी. काफी बहाने ढूंढें जायेंगे तुम्हारी मौत के भी , तुम अवसाद में थे , तुम कायर थे लड़ नहीं सके। मगर हम सब जानते हैं कितना मुश्किल है, तब लड़ना जब पूरा सिस्टम आपने खिलाफ हो। कोई आपकी बात न सुने , कोई आपको न समझे , कुछ कुतर्क देकर आपको नकार दिया जाये। सब इस सिस्टम का सामना कर सके यह ज़रूरी तो नहीं। कुछ अतिसंवेदनशील भी होते हैं उनके लिए छोटी सी बात भी बड़ा सबब बन जाती है, फिर उसपर कुछ भी तर्क आप दे लें बेकार है. जब हम मिथ्या आरोपों का सामना करते हैं तो हमारे सामने कई "क्यों " खड़े जाते हैं जिनका जवाब हमारे पास नहीं होता। और इस क्यों से एक लम्बा युद्ध शुरू होता है. हम सचिन की मजबूरी का अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि वो सुसाइड नोट में लिखता है " मैं नीरू (पत्नी ) से बहुत प्यार करता हूँ, उसे कुछ न किया जाये। " यह सिस्टम से हारे हुए आदमी की आखिरी आवाज़ है , उसे लगता है और युद्ध